हल्द्वानी/ लोकसभा चुनाव की तैयारियों के लिहाज से देखा जाय तो भाजपा अपनी मुख्य प्रतिद्वंद्वी पार्टी कांग्रेस से काफी आगे दिखाई दे रही है। परन्तु भाजपा ने जिस प्रकार प्रचंड बहुमत से सम्पूर्ण जीत की हैट्रिक लगाने का लक्ष्य तय किया है वह इतना आसान भी नहीं दिखाई दे रहा है। पिछले चुनाव के आंकड़े भी इसकी गवाही नहीं दे रहे। वोटों का मामूली अंतर भी हार और जीत का समीकरण बिगाड़ सकता है। वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने साठ प्रतिशत से अधिक मत और पांच लाख से अधिक मतों के अंतर से पांचों सीटों को जीतने का लक्ष्य तय किया है।
जिस प्रकार से वर्ष 2014 और 2019 के लोकसभा तथा वर्ष 2017 और 2022 के विधानसभा चुनावों में भाजपा को प्रचंड जीत मिली उससे भाजपा के दावों में दम भी दिखाई देता है। परन्तु यदि चुनावी आंकड़ों को देखें तो यह इतना आसान भी नहीं है। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 55.30 प्रतिशत वोट मिले। यह मत प्रतिशत वर्ष 2009 की तुलना में 21.50 प्रतिशत ज्यादा था। पांचों सीटें कांग्रेस से छीन ली थी। इस चुनाव में कांग्रेस को 31.4 प्रतिशत वोट मिले। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में उत्तराखंड में भाजपा ने प्रचंड मोदी लहर में एक बार फिर अपना मत प्रतिशत सुधारा और 61.01 प्रतिशत वोट लेकर पांचों सीटों पर लगातार दूसरी बार जीत दर्ज की। हालांकि करारी हार के बाद कांग्रेस का मत प्रतिशत 28 से ऊपर रहा।
तीसरे नम्बर पर रहीं पार्टी बसपा को 4.48 प्रतिशत मत मिले। लेकिन जब विधानसभा चुनाव की बारी आई तो दाव पलटता दिखाई दिया। वर्ष 2022 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को कुल 44.3 प्रतिशत मत और 47 सीटें मिलीं। वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव की तुलना में भाजपा को इस बार 2.2 फीसदी कम वोट मिले और 10 विधानसभा सीटें घट गई। कांग्रेस को 37.9 प्रतिशत वोट के साथ 19 सीटें मिलीं। यानी सबसे हालिया चुनाव में कांग्रेस को 4.4 फीसदी अधिक वोट मिले और सीटों की संख्या 11 से बढ़कर 19 हो गई। इससे यह साफ है कि कांग्रेस मतदाताओं की नजर में पूरी तरह से खारिज नहीं हुई है। कुशल रणनीति और जमीन पर की गई मेहनत से वह भाजपा के सामने कड़ी चुनौती पेश कर सकती है।
इससे रिकॉर्ड जीत की तमन्ना पाले बैठे भाजपाईयों की चुनावी मुश्किलें भी बढ़ सकती हैं।
गेम चेंजर बनेगी बसपा की रणनीति
कांग्रेस के इन्डिया गठबंधन में बसपा शामिल नहीं है। ऐसे में यदि वह उत्तराखंड में खासकर हरिद्वार और नैनीताल सीट से अपने प्रत्याशी को उतारने का फैसला लेती है तो यह कांग्रेस के खिलाफ जाएगा। क्योकि लोकसभा चुनाव में पांच प्रतिशत और विधानसभा चुनाव में 12 से पांच प्रतिशत के बीच बसपा को वोट मिलते रहे हैं। चुनावों का पारम्परिक रिकॉर्ड कहता है कि बसपा ने जब भी अपने प्रत्याशी नहीं उतारे हैं तो इसका सीधा फायदा कांग्रेस को मिला है।